यह क़लम जब भी लिखती है सच ही लिखती है
ज़िंदगी के हर ज़ख़्म की स्याही में डुबो कर लिखती है ।
होती है बहुत तल्ख़ ज़िंदगी उसके ग़म को जीकर लिखती है।
टूटे हुए ख़्वाबों कीं किरचियों को समेट कर एक नज़्म लिखती है ।
क़ाफ़िया और रदीफ़ को अल्फ़ाज़ों में बाँध एक ग़ज़ल लिखती है।
सच के आइनों में अक्स से ज़िंदगी की कहानी लिखती है
यह क़लम जब भी लिखती है दिल के दर्द लिखती है ।
यह क़लम जब भी लिखती है आँसू और मुस्कान लिखती है ।
🖋अनुपम मिठास 🖋